‘माणिक’ है माणा फिर भी चमक ‘फीकी’
देहरादून। उत्तर में हिमालय की चोटियों का रोमांच, दक्षिण में हिन्द महासागर की अठखेलियां करती लहरों से कम नहीं। फिर भी चंचल लहरों पर खेलने वालों की संख्या, अडिग चोटियों को निहारने वालों से कहीं ज्यादा है। खूबसूरत वादियों को कद्रदान का इंतजार है और शौकीनों को जानकारी की जरूरत। हकीकत यही है कि ब्रांडिंग ना होने से सुबह और शाम रंग बदलते उत्तराखण्ड के कुदरती नजारे सौलानियों की नजरों से दूर हैं। भारत के अंतिम गांव माणा को ही ले लीजिए, करीब 10 साल पहले पर्यटन गांव का दर्जा हासिल करने के बाद भी यहां की तस्वीर नहीं बदली। यह हाल उस गांव का है जो बदरीनाथ धाम से महज तीन किलोमीटर दूरी पर है।
माणा कोई आम गांव नहीं, बल्कि बेहद खास है। मान्यता है कि यहां से कुछ ही दूरी पर वह रास्ता है, जिससे युद्धिष्ठिर स्वर्ग की सीढ़ियां चढ़े थे। भीमपुल और वसुधारा भी ज्यादा दूर नहीं। इसके अलावा चरण पादुका, माता मूर्ति मंदिर, घण्टाकरण, व्यास गुफा, गणेश गुफा व मुचकुन्द गुफा से नजदीकी इसको तीर्थाटन की दृष्टि से भी अहम बनाती है। प्रकृति ने इस इलाके को दिल खोलकर नेमतें बख्शी हैं। खास बात यह है कि हर साल औसतन 12 लाख से अधिक श्रद्धालु और सैलानी बदरीनाथ धाम पहुंचते हैं उनमें से गिने चुने ही माणा पहुंचते हैं। वजह यह कि सरकारी योजनाएं फाइलों में ही दफन हैं। अनुसूचित जनजाति (भोटिया) के तकरीबन 220 परिवार वाले इस गांव को वर्ष 2005-06 में केन्द्र ने पर्यटन गांव घोषित किया था। योजना के तहत 70 लाख का बजट भी आवंटित किया गया लेकिन आज 14 वर्ष बाद भी हालात बदलते नजर नहीं आ रहे। माणा सब्जी उत्पादन और ऊनी वस्त्रों के निर्माण के लिए प्रसिद्ध है लेकिन विपणन व्यवस्था न होने से ग्रामीणों को इसका उचित लाभ नहीं मिल पाता। ऐसे में ग्रामीण पलायन को मजबूर हैं। वर्ष 2008 में माणा में कुल 305 परिवार निवास करते थे यह संख्या अब 220 पर सिमट गई है। सीमांत गांव से पलायन देश की सुरक्षा के लिहाज से भी ठीक नहीं है क्योंकि इन्हें द्वितीय रक्षा पंक्ति (सेकेण्ड डिफेंस लाइन) के रूप में देखा जाता है। माणा के ग्रामप्रधान पीताम्बर मोल्फा का कहना है कि गांव को पर्यटन ग्राम के रूप में विकसित किए जाने के गंभीर प्रयास किए जाने चाहिए। http://border village mana near badrinath