राजनीति

ये कैसी सियासी बेशर्मी है हरीश जी ?

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देहरादून। उत्तराखंड के मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र सिंह रावत के खिलाफ सीबीआई जांच के हाई कोर्ट का आदेश चर्चा का विषय बना हुआ है। कोर्ट का फैसला कितना उचित है या अनुचित, इस पर हर गली-मोहल्ले में बहस चल रही है। आम से खास लोग बहस में शामिल हैं। चर्चा में इस मसले से जुड़ा एक स्याह पहलू सामने आया है, वो यह कि बड़े से बड़ा व्यक्ति भी कभी-कभी इतना पेशागत बेशर्म हो जाता है कि उसे अपना इतिहास भी याद नहीं रहता। बात आगे बढ़ाने से पहले यहां तीन लीगों के नाम का जिक्र जरूरी है। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता हरीश रावत, मशहूर अधिवक्ता कपिल सिब्बल और कथित पत्रकार उमेश कुमार। याद करिये ! वर्ष 2016 में उमेश कुमार के द्वारा किये गए स्टिंग से ही उत्तराखंड के तत्कालीन मुख्यमंत्री हरीश की कुर्सी खिसक गई थी। उस वक़्त हरीश और उनके समर्थकों ने उमेश कुमार को हार्डकोर जालसाज, स्टिंगबाज़ और ब्लैकमेलर कहा। अब वही हरीश इसी ब्लैकमेलर उमेश से जुड़े मुकदमे में मौजूदा मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र सिंह रावत का इस्तीफा मांग रहे हैं। और तो और सत्तर के इस पड़ाव में उन्होंने देहरादून में कांग्रेस भवन से राजभवन तक कि दूरी भी तप्ती धूप में पैदल नाप डाली। प्रदर्शन के दौरान अपनी फूलती सांसों की फिक्र न करते हुए हरीश चिल्ला-चिल्लाकर ऐसे मुख्यमंत्री (त्रिवेन्द्र) का इस्तीफा मांग रहे थे जिन पर साढ़े तीन वर्ष के कार्यकाल में भ्रष्टाचार का एक भी दाग नहीं है। ये बेशर्मी की पराकाष्ठा नहीं तो और क्या है ? हरीश का नैतिक दायित्व था कि कम से कम उन्हें इस मामले में इतना मुखर होकर ध्वजवाहक नहीं बनना चाहिए था। सब जानते हैं कि स्टिंग की वजह से ही हरीश की सियासी लोकप्रियता में जबरदस्त डाउनफॉल आया और वे खुद एक नहीं दो सीटों से विधानसभा चुनाव हार गए। इतना ही नहीं कांग्रेस के विधायकों की संख्या 11 पर सिमट गई। ठीक हरीश की तरह अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने भी पेशे के लिए अपनी नैतिकता ताक पर रख दी। 2016 में जब हरीश का स्टिंग मामला हाई कोर्ट नैनीताल पहुंचा था तो उसमें कपिल सिब्बल ने हरीश रावत के पक्ष में पैरवी करते हुए उमेश कुमार के सारे काले कारनामों का चिठ्ठा अदालत में खोल दिया। अब मौजूदा मामले में सिब्बल अदालत में उमेश कुमार के पैरोकार बने हुए हैं और उसे लोकतंत्र का सच्चा प्रहरी, ईमानदार व जनसरोकारों से जुड़ा पत्रकार बता रहे हैं। ये पॉवर गेम नहीं तो और क्या है। ‘कुर्सी की ललक’ और ‘सिक्कों की खनक’ ही तो है जो हरीश और सिब्बल जैसे इंसान को गिरगिट की तर्ज पर रंग बदलने को मजबूर कर देता है। ऐसे लोग अपनी मान-मर्यादा और जमीर तक हाशिये पर रख देते हैं। थू ! ऐसी पेशागत बेशर्मी को, जिसमें राज्य और जनहित दिखाई नहीं देता।

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